बिहार के गया ज़िले का एक सरकारी स्कूल ऐसा है जो साल के 12 महीने देवी मंदिर में खुले आसमान के नीचे लगता है. न यहां पर ब्लैक बोर्ड है, न बेंच और ना ही शौचालय, कुल मिलाकर सरकार की अनदेखी का साक्षात प्रमाण है ये स्कूल गया. शिक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ बनने के लिए केन्द्र और राज्य सरकार हर साल करोड़ों रुपये का बजट आबंटन करते हैं ताकि सरकारी स्कूलों में होने वाले कमियों को दूर कर बच्चों को अच्छी शिक्षा दी जा सके. लेकिन बिहार में कुछ इलाके अलग ही तस्वीर दिखाते हैं. गया जिले के शहरी क्षेत्र के एक प्राथमिक विद्यालय बस्सु बिगहा का हाल कुछ ऐसी ही तस्वीर दिखाता है. स्थापना से अब तक इस विद्यालय के पास अपना भवन नहीं है साथ ही बच्चों के लिे ब्लैकबोर्ड और बैठने के लिए बेंच भी नहीं है. साल के बारहों महीने से स्कूल खुले आसमान के नीचे देवी मंदिर में चलाया जाता है, खास बात ये है कि बिहार के शिक्षा मंत्री कृष्णनंदन वर्मा ही इस जिले के प्रभारी मंत्री हैं.प्राथमिक विद्यालय बस्सु बिगहा में हर रोज 70 से 90 छात्र पढ़ने के लिए आते हैं और पढ़ लिखकर कैरियर बनाना चाहते हैं. स्कूल की छात्राएं रूपा और बबली बताती हैं कि उनके स्कूल में कुछ भी नहीं है, न बैठने के लिए चेयर, न ब्लैक बोर्ड, न ही भवन और ना ही शौचालय, जिससे बच्चों को काफी परेशानी होती है. यहां पढ़ने वाले बच्चे खुले में शौच के लिए जाने को मजबूर हैं. बच्चे लोग पढ़ लिखकर डॉक्टर और शिक्षक बनने की चाहत रखते हैं लेकिन उनका सपना पूरा होता नहीं दिख रहा है. बच्चे सरकार से गुहार लगा रहे हैं कि इस स्कूल के लिए कम से कम आवश्यक व्यवस्थाएं तो की जाएं ताकि बच्चे यहां पढ़ सके.स्कूल की प्रभारी प्रधानाध्यापक मीणा और शिक्षिका अर्चना कहती हैं कि स्कूल के पास अपनी जमीन नहीं है इसलिए बच्चों को देवी मंदिर में पढ़ाया जाता है. भवन के लिए कई बार अधिकारियों को अवगत कराया गया है. एक बार कृषि मंत्री प्रेम कुमार आये थे तो उन्होंने इस बाबत आश्वासन भी दिया था. इस स्कूल में बच्चों के अलावा 3 महिला शिक्षिकाएं भी पढ़ाती हैं, ज़ाहिर है उन्हें भी असुविधाओं का सामना करना पड़ता है.स्थानीय ग्रामीणों का कहना है कि सरकार इस समस्या को गंभीरता से ले ताकि उनके बच्चों को बेहतर भविष्य मिल सके. सरकार ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ का नारा देती है लेकिन वो नारा यहां ज़मीन पर दिखाई नहीं देता. सरकार की अनदेखी के कारण यहां के गरीब तबके के लोगों को भी अपने बच्चों को मोटी फीस देकर प्राइवेट स्कूलों में भेजना पड़ता है.