गुमनामी में खोया देश का नामी गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण साथ में खोया इनसे जुड़े कई अहम रहस्य एवं सवाल,दुनिया को कह गए अलविदा

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जनादेश न्यूज़ बिहार
पटना (राजीव रंजन) : तकरीबन 44 साल से मानसिक बीमारी सिज़ोफ्रेनिया से पीड़ित वशिष्ठ नारायण सिंह पटना के एक अपार्टमेंट में गुमनामी का जीवन बिता रहे थे राजनीतिक गलियारों में सत्ता की होड़ में और चुनावी शोर में इस महान गणितज्ञ की बेबसी दब गई। सरकार ने भी कभी इनकी या इनके परिवार की पीड़ा पर ध्यान नहीं दिया। वशिष्ठ नारायण सिंह 2 अप्रैल को अपना 77वां जन्म दिन मनाते हुए 78वें वर्ष में प्रवेश कर गए थे परंतु उनका यह वर्षगांठ उनके या उनके परिवार के लिए कोई मायने नहीं रखता। मानसिक बिमारी से पीड़ित इस गणितज्ञ का आज भी किताब, कॉपी और एक पेंसिल उनकी सबसे अच्छी दोस्त थी. लेकिन आइंस्टीन को चुनौती देनेे वाले आज महान गणितज्ञ बिहार विभूति बिहार का एक कोहिनूर  डॉक्टर वशिष्ठ नारायण सिंह अपनी काफी यादें और हकीकत को छोड़कर अलविदा कह गए.
पटना में उनके साथ रह रहे भाई अयोध्या सिंह बताते है, “अमरीका से वह अपने साथ 10 बक्से किताबें लाए थे, जिन्हें वह आज भी पढ़ते थे। बाकी किसी छोटे बच्चे की तरह ही उनके लिए तीन-चार दिन में एक बार कॉपी, पेंसिल लानी पड़ती थी।” वशिष्ठ नारायण सिंह ने आंइस्टीन के सापेक्ष सिद्धांत को चुनौती दी थी। उनके बारे में मशहूर है कि नासा में अपोलो की लांचिंग से पहले जब 31 कंप्यूटर कुछ समय के लिए बंद हो गए तो कंप्यूटर ठीक होने पर उनका और कंप्यूटर्स का कैलकुलेशन एक था। पटना साइंस कॉलेज में बतौर छात्र गलत पढ़ाने पर वह अपने गणित के अध्यापक को टोक देते थे। कॉलेज के प्रिंसिपल को जब पता चला तो उनकी अलग से परीक्षा ली गई जिसमें उन्होंने सारे अकादमिक रिकार्ड तोड़ दिए। पांच भाई-बहनों के परिवार में आर्थिक तंगी हमेशा डेरा जमाए रहती थी। लेकिन इससे उनकी प्रतिभा पर ग्रहण नहीं लगा। वशिष्ठ नारायण सिंह जब पटना साइंस क़ॉलेज में पढ़ते थे तभी कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जॉन कैली की नजर उन पर पड़ी। कैली ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और 1965 में वशिष्ठ नारायण अमरीका चले गए।
साल 1969 में उन्होंने कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी से पीएचडी की और वॉशिंगटन विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर बन गए। नासा में भी काम किया लेकिन मन नहीं लगा और 1971 में भारत लौट आए। पहले आईआईटी कानपुर, फिर आईआईटी मुंबई, और फिर आईएसआई कोलकाता में नौकरी की।
इस बीच 1973 में उनकी शादी वंदना रानी सिंह से हो गई। घरवाले बताते हैं कि यही वह वक्त था जब वशिष्ठ जी के असामान्य व्यवहार के बारे में लोगों को पता चला। इस असामान्य व्यवहार से वंदना भी जल्द परेशान हो गईं और तलाक़ ले लिया। यह वशिष्ठ नारायण के लिए बड़ा झटका था।
भाई अयोध्या सिंह कहते हैं, “भइया (वशिष्ठ जी) बताते थे कि कई प्रोफ़ेसर्स ने उनके शोध को अपने नाम से छपवा लिया, और यह बात उनको बहुत परेशान करती थी। ” साल 1974 में उन्हें पहला दौरा पड़ा, जिसके बाद शुरू हुआ उनका इलाज। जब बात नहीं बनी तो 1976 में उन्हें रांची में भर्ती कराया गया। घरवालों के मुताबिक इलाज अगर ठीक से चलता तो उनके ठीक होने की संभावना थी।लेकिन परिवार ग़रीब था और सरकार की तरफ से मदद कम। 1987 में वशिष्ठ नारायण अपने गांव लौट आए। लेकिन 89 में अचानक ग़ायब हो गए। साल 1993 में वह बेहद दयनीय हालत में डोरीगंज, सारण में पाए गए।
आर्मी से सेवानिवृत्त डॉ वशिष्ठ के भाई अयोध्या सिंह बताते हैं, ” उस वक्त तत्कालीन रक्षा मंत्री के हस्तक्षेप के बाद मेरा बेंगलुरु तबादला किया गया जहां भईया का इलाज हुआ। लेकिन फिर मेरा तबादला कर दिया गया और इलाज नहीं हो सका। तब से अब तक वह कभी गांव पर तो कभी पटना के कुल्हड़िया काम्पलेक्स स्थित किराए के मकान में रहते थे।”
डॉ वशिष्ठ का परिवार उनके इलाज को लेकर अब नाउम्मीद हो चुका था सरकार की तरफ से कोई मदद नहीं मिल रही थी हालात जब बिगड़ी तो उनके परिवारों ने उन्हें पटना के पीएमसीएच में इलाज के लिए भर्ती कराया। घर में किताबों से भरे बक्से, दीवारों पर वशिष्ठ बाबू की लिखी हुई बातें, उनकी लिखी कॉपियां अब उनको डराती हैं. डर इस बात का कि क्या वशिष्ठ बाबू के बाद ये सब रद्दी की तरह बिक जाएगा। वशिष्ट नारायण सिंह के परिजन कहते हैं कि “हिंदुस्तान में मिनिस्टर का कुत्ता बीमार पड़ जाए तो डॉक्टरों की लाइन लग जाती है। लेकिन अब हमें इनके इलाज की नहीं किताबों की चिंता है। बाक़ी तो यह पागल खुद नहीं बने, समाज ने इन्हें पागल बना दिया।” लेकिन वशिष्ट बाबु आज गुमनामी की जिंदगी जीते हुए बिहार के एक कोहिनूर के रूप में अपने आप को अलविदा कह गए.